Friday, April 3, 2015

युवाशक्ति का महाउद्घोष

आज युवा शक्ति का सर्वत्र उद्घोष ही नहीं बल्कि महा उद्धघोष हो रहा है। परिवारों में, समाज में, मार्केट में, फिल्मी दुनिया में, राजनीति में हर जगह इस वर्ग की दुहाई का मानों एक स्वर्ण काल आभासित हो रहा है। युवा वर्ग की जरूरत, रूचि और पसंद के हिसाब से मार्किट में तमाम प्रोडक्ट की लॉन्चिंग  कर उसका बाजार तैयार किया जाता है। समाज इस वर्ग को जोश और ज़माने का पर्याय मान कर अपनी दशा और दिशा निर्धारित करना चाहता है। परिवारों की बात करें तो हर परिवार अपने नौजवान सदस्य के ऊपर अपनी परवरिश का समूचा दारोमदार देखता है। और हर युवा अपने माँ बाप के आसरे का सहारा बनने की जद्दोजहद में होता है।
फिल्मी दुनिया में युवा मनोभावों को उकेरने और चित्रित करने की पटकथा सबसे अव्वल दिखाई देती है और अंत में राजनीति की बात करें तो दुनिया के सबसे बड़े युवा देश भारत की बहुदलीय और प्रतियोगी लोकतान्त्रिक चुनावी व्यस्था में युवाओ की दुहाई का तो जबरदस्त दौर ही चल रहा है। देश की जनसख्या का करीब 35 प्रतिशत हिस्सा भारत में एक बहुत बड़ा वोट बैंक होने के कारण राजनीतिक दलों की सफलता का एक बड़ा पैमाना बन चुका है। पूरी दुनिया में लोग यह मानते है की युवा वर्ग की प्रभावशीलता एक सर्वकालीन, पारलौकिक और दिक दिगंत गुंजायमान अवधारणा रही है। क्योकि मानव सहित हर जैविक प्राणी के आविर्भाव से लेकर अवसान तक तथा जीवन की हर अवस्थाओ ऐज, फेज और स्टेज में हम जो अपना सफर पूरा करते है उसकी सबसे चमत्कृत और रोमांचक अवस्था युवावस्था ही तो होती है। जन्म और बचपन के बाद आने वाली युवा अवस्था एक ऐसी अवस्था है जो हमारे जीवन, समाज, परिवार, देश और युग सभी को एक निर्णायक मोड़ प्रदान करने वाली साबित होती है।
यह अवस्था एक ऐसे मोड़ से गुजरती है जो कही भी मूड़ सकती है। अच्छी दिशा में भी तो बुरी दिशा में भी, अनुशासित प्रवृति में भी तो अराजक प्रवृति में भी, तपोनिष्ठ प्रवृति में भी तो ऐययाशी प्रवृतियों में भी, सकारात्मक व रचनातमक प्रवृतियों में भी तो इसके उलट नकारात्मक और विध्वंसक प्रवृतियो में भी, कर्मयोगी के रूप में भी तो कामचोर के रूप में भी, लम्बी रेस के घोड़े के रूप में भी तो शार्टकट तरीके से हासिल करने वाले के रूप में भी। एक सुसंस्कृत और भद्र परुष के रूप में भी तो उलट एक असभ्य और अपराधी प्रवृति के रूप में भी। एक ईमानदार और चरित्रवान के रूप में भी तो इसके उलट बेईमान व भ्रष्ट व्यकति के रूप में भी। एक स्वप्नदर्शी, आदर्शवादी, सिद्धांतवादी और नैतिकवादी व्यक्ति के रूप में भी तो इसके उलट रातो रात बड़ा पा लेने के रूप में भी। कुल मिलाकर इसके मायने ये है की यह अवस्था ऐसी है जो अंग्रेजी में मेक और ब्रेक के कहावत को चरित्रार्थ करती है।
यह एक दुधारी तलवार की तरह है जो एक युवा को सैनिक और सिपाही भी बना सकती है तो दूसरी तरफ  उसे एक दूर्दांत अपराधी भी बना सकती है। यह तो हमारे सिस्टम, समाज और सरकारों का दायित्व है की वह इस युवा वर्ग के जोश, प्रतिभा और जजबे को कौन सा रूप प्रदान करते हैं। क्योकि प्रतिभा तो एक अपराधी में भी होता है और एक सैनिक में भी होता है। प्रतिभा तो एक आतंकवादी विस्फ ोटक बनाने वाले के पास है तो दूसरी तरफ  हमारे रक्षा संस्थान के वैज्ञानिक के पास भी है, केवल रास्ते अलग है। एक वैध रास्ता है तो दूसरा अवैध। एक रास्ता सामाजिक है दूसरा रास्ता असामाजिक है। एक रास्ता कानूनसम्मत है तो दूसरा गैरकानूनी है।
अब सवाल ये है की क्या इन सारे परिप्रेक्ष्यों और सामाजिक परिस्थितियों में युवा वर्ग की क्या केवल दुहाई दी जाएगी या इनकी दशा और दिशा का एक व्यापक एजेंडा भी विचारित और निर्धारित होगा।
 यह सही है की देश काल और परिस्थिति के मुताबिक युवा वर्ग की मानसिकता, प्रवृति और विचारभूमि बदलती रहती है। परन्तु युवावस्था जो एक स्टेज ऑफ़  लाइफ  है उसके पोषण, संस्कार, शिक्षा, प्रशिक्षण और परितोषण की एक तयशुदा नीति भी तो होनी चाहिए। हमारी युवा नीति का तकाजा है की उनके स्वास्थ्य, मन:स्थिति, कौशल निर्माण, व्यक्तित्व और पेशेवर जरुरतो को लेकर हमारे देश में कैसा इंफ ्रास्ट्रक्चर तैयार है ।

युवा और महिला एक नैसर्गिक वर्ग जिसकी कई सामाजिक श्रेणियाँ

सबसे मुख्य बात जो ध्यान में रखे जाने की है वह ये है की जब भी हम युवा और महिला उत्थान जैसे विषयो पर बाते करते हैं तब यह भूल जाते हंै की यह युवा और महिला कोई सामाजिक वर्ग नहीं है। ये दोनों एक प्राकृतिक या नैसर्गिक वर्ग हैं। महिला समूची मानव जाती की आधी आबादी है जो  समवेत दृष्टि से वास्तव में वर्ग नहीं लिंग है। हाँ इस लिंग के कई सामाजिक वर्ग हंै, मसलन शिक्षित महिला व अशिक्षित महिला, उच्च मध्य वर्ग की महिला व निम्न मध्य वर्ग की महिला, गावों की महिला व शहरों की महिला, उंची जाती की महिला व पिछड़ी व दलित जाती की महिला, बहुसंख्यक वर्ग की महिला और अल्पसंख्यक वर्ग की महिला वगैरह वगैरह। कामकाजी महिला और गृहिणी महिला, आधुनिक विचारों की महिला व परंपरागत विचारों की महिला।
जब तक हम महिलाओं के लिए इस तरह के निर्धारण नहीं करेंगे तब तक बहुविध नारी सवालों का व्यापकता से हम ना तो समाधान कर पाएंगे और न ही इन अलग अलग महिला वर्गो के साथ सही न्याय कर पाएंगे। समूचे नारी सवालों का विश्लेषण जब हम एक प्राकृतिक वर्ग ना मानकर एक सामाजिक वर्ग के आधार पर करते हंै तो उससे नारी सवालों की प्रसंग दर प्रसंग और परत दर परत व्याख्या नहीं हो पाती है, समाधान तो दूर की बात । मसलन देहात के इलाकों में महिलाये अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रही हैं, जबकि शहरी मध्य वर्ग की महिलायें अपने सम्मान की लड़ाई के लिए संघर्ष कर रही हंै।
कहना ना होगा इसी तरह युवा भी महिलाओं की तरह प्राथमिक तौर पर कोई सामाजिक वर्ग नहीं बल्कि जीवन की एक अवस्था है जो पुरुष, महिला, गाव, शहर, पश्चिम और पूरब सभी जगह होती हैं, हाँ इनके भी कई सामाजिक वर्ग वैसे ही हैं जैसे महिलाओं के हैं। मसलन उच्च शिक्षित युवा बनाम अर्धशिक्षित और अनपढ़ युवा वर्ग। शहरी युवा बनाम ग्रामीण युवा, उंची जाती का युवा बनाम दलित जाती का युवा। बड़े कापोर्रेट घराने में काम करने वाला युवा बनाम दिहाड़ी मजदूरी करने वाला युवा, पर्क सैलरी पैकेज पाने वाला युवा बनाम छोटा पगाड़ पाने वाला युवा।
मौजू सवाल ये है कि जब तक हम जीवन के इस युवा स्टेज के तमाम सामाजिक वर्गों की स्थिति का गहराई से अलग अलग अवलोकन नहीं करते तब तक हम सभी युवा सवालों को एक रूप कैसे दे सकते हैं। हम युवा वर्ग से वोट लेने के लिए उनकी दुहाई देते हैं जिससे की युवा वोटों की गोलबंदी हो सकें।पर इनके अजेंडे को निर्धारित करने के महाकार्य को कैसे अंजाम दे सकते है जब तक हम इस समस्या पर कोई एक व्यापक नज़रिये का निर्माण नहीं कर पाएं ।
दिक्कत ये है की हम जीवन के इस अनिवार्य स्टेज युवा अवस्था की महज एक दुहाई देकर सभी युवाओं की एक ही दशा और दिशा मान लेने की बहुत बड़ी भूल कर लेते हैं । ये ठीक है की सभी सामाजिक वर्गों के युवाओं के लिए एक अच्छा रोजगार पाना एक कॉमन मकसद और लक्ष्य हो सकता है, परन्तु फि र भी हर वर्ग के युवा की समस्या की प्रकृति, प्रकार और तीव्रता में काफी अंतर है। जिस तरह से हमने लिंग के आधार महिलाओं का कई सामाजिक वर्गीकरण किया उसी आधार पर युवा के भी कई सामाजिक वर्गीकरण और इनका प्रत्यक्षीकरण कर ही समस्या की व्यापकता की पड़ताल कर उसका औचित्य परक समाधान निकाल पाएंगे। मिसाल के तौर पर शहरी सभ्रांत वर्ग का युवा अपने गर्ल फ्रेंड व बॉयफ्रेंड बनाने के लिए संघर्षरत है तो दूसरी तरफ गावों का कम पढ़ा लिखा नौजवान बस इतना ही चाहतें हैं की उनकी इतनी दिहाड़ी कमाई हो जाए जिससे किसी अच्छे घर से उनके लिए शादी का रिश्ता आ जाये। गावों में कम पढ़ा लिखा युवा किसी अच्छे फैक्ट्री में नौकरी पा लेने के लिए संघर्षरत है तो महानगरों में एक ऐसा युवा वर्ग है जो विदेश जाने के वीजा पाने की जद्दोजहद में लगा है।
एक तरफ  युवाओं का एक वर्ग ऐसा है जो एयरलाइन टिकट की एडवांस बुकिंग कर कॉपोर्रेट जॉब के लिए इंटरव्यू देने जाता है तो दूसरी तरफ गावों के अर्धशिक्षित और अर्धकुशल नौजवान लम्बी दूरी के ट्रैन के जनरल कम्पार्टमेंट में भेड़ बकरी की तरह ठूसकर पंजाब, दिल्ली, मुंबई, गुडगाँव जैसी जगहों के लिए कूच करता है। वीजा लेने वालो के मन में जहंा अमेरिका और यूरोप के बड़े शहरों के सपने तैरते हंै तो दूसरी तरफ गावों के नौजवान के सपनों में एक अच्छी फैक्ट्री में अच्छी पगाड़ वाली नौकरी पाने के सपने तैरते हैं जिससे वह एक चाइनीज मोबाइल खरीद सकें और अपने परिवार और गांव के सदस्यों को दिखा कर अपनी युवा अवस्था के सपने का एक रोमांच ग्रहण कर सके।
मेरा कहने का इरादा यहां कोई साम्यवादी विचार की भावनाओ का बिम्ब गढऩा नहीं है बल्कि इन उद्धरणों के जरिये इस बात को सपष्ट करना है की जेंडर और लाइफ स्टेज के सवालों को हम एक चासनी में ढ़ालकर उनकी समस्याओं का वैज्ञानिक समाधान नहीं कर सकते। उनके अलग अलग सामाजिक वर्गो की प्रसंग दर प्रसंग समस्या का अवलोकन कर ही निराकरण कर सकते हैं। जब हम युवा और महिला वर्ग के अलग अलग सामाजिक जमातों की समस्याओं की गहराई में जायेंगे, तभी हमें एक मुकम्मल एजेंडा, नीति और एक व्यापक समाधान का पर्सपेक्टिव पैकेज तैयार हो सकता है।
देखा जाये तो आज कौन सा युवा वर्ग हमारे मीडिया में, राजनीती में, फिल्मों में उनकी दुहाई के केंद्र में है। इनमे वही युवा शामिल है जो देश के समूचे शहरी क्षेत्रों में रहने वाला शिक्षित और पेशेवर युवा है जो कुछ कछार ग्रामीण क्षेत्र में भी मौजूद है। जो मोबाइल, लैपटॉप से सुसज्जित होकर एफबी, ट्विटर और व्हॉट्सअप्स पर कनेक्टेड है। और हमारे कम से कम 60 फीसदी युवा जो अनपढ़ हंै, अर्धशिक्षित हैं, अकुशल हैं, अस्वस्थ हैं, जिन के मन में सपनें बनते तक नहीं, पूरे होने तो दूर की बात है। जिसे या तो 14 साल की उम्र के पहले या तो बाल मजदूर बनना पड़ता है या जवानी की उम्र तक एक अनुभवी दिहाड़ी मजदूर बन जाना पड़ता है। जिसे अपने माँ बाप की गरीबी की वजह से अपने पैरो पर चलना उम्र के पहले ही सीख लेना पड़ता है। जिसे अपने व्याह की उम्र में ही अपने बेटे बेटी के व्याह शादी की तैयारी में मशगूल हो जाना पड़ता है।
अब सवाल ये है कि क्या ऐसे युवा वर्ग के लिए हमारे पास दुहाई देने का स्लोगन है। इसका उत्तर तो नहीं में है। इसके लिए न तो नीति है, न नियोजन है और ना ही कोई नियामक संस्था है। देखा जाये तो युवा के लिए पढ़ाई, नौकरी और अवसर ये तीनो बेहद अहम फैक्टर हैं। पर इसके बावजूद पर हमारे यहाँ युवाओं की अलग अलग दुनिया होने से इनके समाधान भी अलग अलग है। पहला अलगाव तो हमें गांव व शहर के बीच में दिख जाता है। दूसरा अलगाव स्थानीय माध्यम और अंग्रेजी माध्यम की पढ़ाई से आ जाता है। तीसरा अलगाव अलग अलग बोर्ड व सिलेबस से आ जाता हैै। चौथा अलगाव पेशेवर और गैर पेशवर शिक्षण से आ जाता है। और अंत में सभी युवाओं की अलग अलग परिवारिक पृष्ठभूमि होने की वजह से अलगाव तो एक जगजाहिर सी बात है।  ऐसे में हमारे सामने एक महाप्रश्न ये है की क्या हम देश की युवा शक्ति को एक रूप और एक संसार देने के लिए एक क्षिक्षण माध्यम, एक एजुकेशन बोर्ड, एक सिलेबस और व्यक्तित्व निर्माण की क्या कोई एक नीति का निरूपण हम नहीं कर सकते

मूल समस्या का निदान 

मंै यह बात हमेशा से मानता हूँ की देश में गरीबी, बेरोजगारी जैसी समस्याओं का समाधान नारों और समाजवादी योजनाओं के मार्फत नहीं लायी जा सकती । 1950-90 की कालावधि हमें अच्छे से याद है। हम निजी-सार्वजनिक साझेदारी, परस्पर प्रतियोगिता, प्रतियोगी बाजार तथा नियमन प्राधिकरण के मार्फत ही गरीबी बेरोजगारी का प्रभावी समाधान ला सकते हैं। आज गावों के कम पढ़े लिखे और निरक्षर युवकों को बड़े महानगरो और औद्योगिक केन्द्रों में जो रोजगार मिला और उनसे जो उन्हें आमदनी मिली उससे उनके चेहरों पर मुस्कान आई है जो पिछले 40 साल की समाजवादी नीतियों और नारों से संभव नहीं हो पाया था।
आर्थिक क्षेत्र में देखा जाए तो सरकारों के मूल कार्य चार हंै। पहला आधारभूत सुविधाओ का विकास, दूसरा शिक्षा और स्वास्थ्य जैसी मानव विकास सुविधाओं की उपलब्धता, तीसरा सामाजिक सुरक्षा की व्यापक मौजूदगी और चौथा इन तीनो के जरिये रोजगार का अधिक से अधिक सृजन। आज देश में अनिवार्य प्राथमिक शिक्षा को बल मिला तो उसके पीछे मध्यान्ह भोजन योजना  का मुख्य रूप से हाथ था। इसी तरीके से हमें चाहिए की असंगठित क्षेत्र के कामगारों के वेतन को मूल्य सूचकांक से जोड़ा जाये। इसी तरह से देश हर अर्धकुशल, अकुशल युवा कामगारों के लिए अनिवार्य कौशल विकास का प्रशिक्षण कार्यक्रम बेहद अहम है। ख़ुशी की बात ये है की  मोदी सरकार द्वारा कौशल प्रबंधन को अपना प्राथमिक कार्यक्रम बनाया गया है।
हमारी युवा नीति का सारा दारोमदार बहुत कुछ हमारी शिक्षा और रोजगार नीति की स्पष्टता, सरलता, व्यापकता और समरूपता पर निर्भर करती है। इसी के जरिये हम देश के युवा सवालों को मात्रात्मक तरीके से हल कर सकते हैं। पर मात्रात्मक हल से ज्यादा बड़ी चिंता हमारे युवा सवालों की गुणात्मकता को लेकर है। प्रश्न ये है की क्या हम देश काल परिस्थिति तथा जोश जमाने के प्रयाय युवा वर्ग को हम उनके अपने समाज में चलंत ट्रेंड और ट्रेडिशन पर ही छोड़ देंगे या इनके लिए नैतिक मूल्यों और आदर्शवादी उपमानों का कोई एक मॉडल भी तय करेंगे। हम युवा वर्ग की दुहाई देते है पर यह भूल जाते हैं की आज की हमारी वह प्रतीकात्मक युवा पीढ़ी नैतिकता जैसे शब्दों का मजाक उड़ाती है। आदर्शों और सिद्धान्तों की बात को अव्यवहारिक ठहराती है। धैर्य और सहिंष्णुता को बेवकुफ ों का कृत्य मानती है। संघर्ष और तपस्या के बजाये रातो रातो सफ लता पाने के हथकंडो का इस्तेमाल करना ज्यादा पसंद करती है। गरीबों, पीडितों और कमजोर तबके के प्रति असंवेदनशील बनी रहती है। हमारी युवा नीति की सबसे बड़ी जरूरत है की हम देश के युवा वर्ग के लिए एक नए उच्च नैतिक मानदंड तय करें। आज हमारी युवा पीढ़ी मिहनत, संघर्ष, सहिस्णुता और सम्मान प्रदर्शित करने के बजाये अहंकार, चकाचौंध, विलासिता और ऐशो आराम को प्राथमिकता देना पसंद करती है। दूसरी तरफ युवाओं की दूसरी दुनिया जो हमारी युवा वर्ग की दुहाई के चलंत प्रतीक में शामिल नहीं है, वह ज्ञान, जागरूकता और अपने हक़, दायित्वों और कर्म से अनजान  है। वह कुछ ज्यादा सोचने और कर गुजरने की स्थिति में ही नहीं है।
कुल मिलाकर आज वक्त युवा वर्ग की दुहाई देने का नहीं है। उनके लिए एक बेहतर दशा और दिशा निर्धारित करने का है, उनके लिए एक समवेत नीति बनाने का है, उनके तमाम संवर्गो के लिए प्रासंगिक नीति और नियोजन का है, उनके लिए अनेकानेक दुनिया बनाने के बजाये एकसमान दुनिया बनाने की है, उनके लिए सामाजिक संवेदना, राष्ट्रीय गौरव बोध, नैतिक जीवन मूल्यों को पुनरस्थापित करने का है। उन्हें देश की समूची व्यस्था में बदलाव के लिए एक धीर गंभीर सेनानी बनाये जाने का है।
इसके लिए हमें वह युवा नीति चाहिए जो सबसे पहले तो युवाओं में त्वरित रूप से नैतिक मूल्यों के प्रति गहरा आकर्षण बोध पैदा करे। जो भोगी नहीं त्यागी बनाये, जो स्व नहीं सर्व भावना से अभिभूत हो।

No comments:

Post a Comment