Tuesday, March 27, 2012

पैसेंजर किराये में दोगुनी बढ़ोत्तरी भी रेलवे का घाटा नहीं मिटा सकतीे

रेलवे को दिनेश त्रिवेदी जैसा मंत्री चाहिए था जो इसमे अनेकानेक सुधारों को अमली जामा पहना सकता था
मनोहर मनोज, संपादक, इकोनॉमी इंडिया व अध्यक्ष, भारतीय युवा पत्रकार संगठन
केन्द्र हो या राज्य सरकारें, बिजली हो या पेट्रोल, सिमेंट हो या स्टील, दूध हो या चीनी पिछले कुछ सालों से देंखे तो सभी ने इनके दामों में बढ़ोत्तरी करने में थोड़ा भी गुरेज नहीं किया है। पर रेलवे ने अपनी सभी तरह की लागत चाहे वह पेट्रोलियम, बिजली, ईस्पात, कोयला तथा अपने कर्मचारियों की छठे वेतन आयोग द्वारा की गई बढ़ोत्तरी के बावजूद पहली बार रेलवे का पैसेंजर किराया बढ़ाया तो रेलवे के अर्थशास्त्र पर राजनीति हावी हो गई और रेलवे की असली मालकिन ममता बनर्जी ने अपने वजीर दिनेश त्रिवेदी को रातोरात चलता करने का फरमान जारी कर दिया गया। ऐसा लगा कि रेलवे का बढ़ा किराया समूचे देश के लोगों पर नहीं उनके केवल बंगाल के मा- माटी- मानुष पर भारी पड़ा हो और वह ममता द्वारा अपनायी गई अल्ट्रा लेफ्ट राजनीति का नुकसान कर गया हो। पर लोगों को यह भी पता होना चाहिए था कि बजट के ऐन वक्त पहले जरूरी जिंसों के माल भाड़े में करीब 20 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी कर रेलवे ने अपने लिये करीब 15 हजार करोड़ रुपये की अतिरिक्त उगाही का इंतजाम कर लिया था। आखिर इसका भार देश की आम जनता को ही करना था तो फिर यात्री किराये जिसेे पिछले 9 साल से ना बढ़ाकर विगत के सभी रेल मंत्री अपनी राजनीति की रोटी सेंक रहे थे पर इस बार इसमे थोड़ी बढ़ोत्तरी कर करीब 4 हजार करोड़ रुपये का लोगों पर भार डाला गया तो वह आमजन विरोधी कैसे हो गया? मतलब साफ है कि माल भाड़ा बढाना राजनीतिक रूप से गैर नुकसानदेह और यात्री किराया बढाना राजनीतिक रूप से नुकसानदेह सौदा था।
कहना ना होगा पूर्व रेलवे मंत्री दिनेश त्रिवेदी ने अपने करीब 9 महीने के कार्यकाल में जिसकी अंतिम परिणति उनकी रेल बजट पेशगी के साथ हुई, ने समूचे रेलवे को सशक्त, सुरक्षित तथा आर्थिक रूप से सुदृढ़ बनाने के लिये कई विजनरी फार्मूले प्रस्तुत किये। चाहे वह रेलवे के आधुनिकीकरण व बेहतर बुनियादी संरचना को लेकर सैम पित्रोदा कमेटी की रिपोर्ट रही हो, रेलवे को सुरक्षित बनाने को लेकर अनिल काकोदकर कमेटी का गठन रहा हो, रेलवे के राजस्व बढाने के रेलवे की मौजूदा परिसंपत्ति के बेहतर उपयोग के रास्ते तलाशने को लेकर हो या फिर रेल प्रशासन को नये सिरे से चुस्त दूरूस्त बनाने के लिये रेल बोर्ड के पुनर्गठन करने को लेकर हो। पर विडंबना ये है कि भारत में रेलवे को बेहतर बनाने को लेकर होने वाली सारी बहस यात्री किराये और सुविधाएं के इर्द गिर्द केन्द्रित हो कर रह जाती है।
रेलवे भारत सरकार के मंत्रालय स्वामित्व में डाकघर के बाद चलने वाला दूसरा उपक्रम है जो भारत सरकार के रेल मंत्री और उच्चाधिकार प्राप्त रेलवे बोर्ड के अधीन देश भर में स्थापित 16 रेल जोन महाप्रबंधकों द्वारा संचालित होता है। मतलब ये है कि भारतीय रेल को देश की करीब 120 करोड़ की आबादी को ढ़ोने, देश की कृषि,उद्योग और सेवा क्षेत्र के लिये एक बुनियादी संरचना के रूप में कार्य करने के साथ अपने को आर्थिक रूप से सशक्त और सुदृढ़ बनाने की जरूरत है जिससे वह देश की आगामी नयी जरूरतों के लिये अपने को पूरी तरह से तैयार रख सके। इसके लिये जरूरी है कि रेलवे में पिछले 160 साल के दौरान ब्रिटिश भारत से लेकर आजाद भारत के दौरान जितना निवेश किया गया और इसकी परिसंपत्ति का जो निर्माण हुआ, इसमे जो करीब 14 लाख कर्मचारी तैनात हैं उसकी पूरी पूरी उत्पादकता देश के समक्ष प्रस्तुत हो और फिर इसकी आर्थिक और सामाजिक ऑडिट दोनों देश के सामने रखी जाए।
रेलवे के समक्ष सबसे बड़ा सवाल ये है रेलवे के ट्राफिक और फ्रेट यानी यात्री सेवाओं और माल ढ़ुलाई सेवाओं के आमदनी और खर्चे के बीच का भारी असंतुलन। रेलवे को यात्री किराये से उसक ी कुल आमदनी का करीब एक तिहाई हिस्सा प्राप्त होता है जबकि रेलवे के कुल खर्चे का वह करीब दो तिहाई हिस्सा लील जाती है। दूसरी तरफ माल भाड़े से रेलवे को अपनी आमदनी का करीब दो तिहाई हिस्सा प्राप्त होता है जबकि वह रेलवे के कुल खर्चे का केवल एक तिहाई हिस्से से अपना काम चला लेती है। इस तथ्य पर यह कहकर पर्दा डालने का प्रयास किया जाता है कि रेलवे अपना यात्री किराया नहीं बढ़ा रही है इसलिये यात्री सेवाएं भारी घाटे में चल रही हैं। परंतु इन असंतुलन के मूल कारणों का पता लगाने के लिये किसी भी रेल मंत्री या किसी अध्ययन कमेटी ने यह प्रयास नहीं किया । हम यह नहीं कह सकते कि यात्री किराये की दरें काफी कम है, बल्कि हम यह क्यों नहीं कहते कि यात्री सेवाओं में रेलवे की लागत काफी ज्यादा है और इस वजह से रेलवे को अपनी आमदनी का दो तिहाई हिस्सा खर्र्च कर देना पड़ रहा है।
यह अध्ययन का विषय है कि-क्या रेलवे पैंसेजर सेवाओं की कार्यक्षमता कम है? क्या इसमे भ्रष्टाचार और संसाधनों की भारी बर्बादी है? क्या इसमे ओवर स्टाफिंग है? मोटे तौर पर हम यह मान सकते हैं कि पैसेंजर सेवाओं में रेलवे का जो घाटा है वह करीब 35 हजार करोड़ के आसपास है। यदि यात्री किराये में दोगुनी क्या तिगुनी भी बढ़ोत्तरी की जाए तो भी इस घाटे की भरपाई नहीं हो सकेगी। वाजिब तौर पर देंखे तो चूंकि रेलवे ने पिछले 9 साल से किराया नहीं बढाया है तो मुश्किल से 25 प्रतिशत किराया कम लिया जा रहा होगा पर रेलवे का पैसेंजर घाटा 200 प्रतिशत है। इतना बड़ा असंतुलन क्यों? क्या ऐसा नहीं है कि एक ट्रेन में 100 की संख्या में तैनात टीटी रेलवे की कौन सी उत्पादकता बढ़ाते हैं? क्या ये लोग बेटिकट यात्री को पकडऩे के बहाने अपनी जेब गर्म करने के लिये रेलवे द्वारा बहाल किये गए हैं। लंबी दूरी में कोई बेटिकट नहीं जाता। असलियत तो ये है कि लोग बढ़े किराये पर टिकट चाहते हैं पर रेलवे ना तो मांग के मुताबिक बर्थ मुहैय्या करा पाती है और ना ही ट्रेन। ऐसे में रेलवे टीटी इनसे पेनाल्टी वसूल कर जनता का गला रेत कर रेलवे की आमदनी बढ़ाते हैं पर दूसरे हाथ से रेलवे इन टीटियों के वेतन पर इससे ज्यादा पैसे खर्च कर देती है। आखिर पैसेंजर सेवाओं का यह कौन सा रेवेन्यू मॉडल है जो जनता का भी भला ना करे और ना ही रेलवे का मुनाफा बढाये।
आज रेलवे पर होने वाली चर्चाओं में बुनियादी बातों पर चर्चा नहीं होती। हैरानी की बात ये है कि रेलवे को अपने पैसेंजर कारोबार में एकाधिकारी की स्थिति प्राप्त है फिर भी उसकी पैसेंजर सेवाएं घाटे में क्यों है? क्या मेट्रो रेल की तर्ज पर रेलवे में भी ऐसी तकनीक का उपयोग किया जाए कि वहां किसी टीटी की जरूरत ना पड़े और ना ही कोई बेटिकट यात्री उसमे प्रवेश कर सके।
दूसरा सबसे महत्वपूर्ण मुद्दा है उपभोक्ताओं को अपनी मांग के अनरूप हर समय रेल टिकट व बर्थ प्राप्त हो। पर हमारे आर्थिक विश£ेषक व रेल विशेषज्ञ इस बात पर चर्चा करते हैं कि रेलवे यात्रियों को सुविधाएं नहीं प्राप्त हो रही हैं, कौन सी सुविधा? अरे यात्री को बस यह चाहिए कि जब चाहे वह अपने मनचाहे ट्रेन से वाजिब पैसे खर्च अपने गंतव्य को जाए। यात्री भेड़ बकरी की तरह रेल डिब्बे में सफर करते हैं, उस पर कैसे निजात पाई जाए ना कि स्टेशन कितना बड़ा है? वहां पानी और पैखाने की कितनी व्यवस्था है? स्टेशन के आगे कितना बड़ा पार्क है। आखिर बस स्टैंड, टैक्सी स्टैंड और हवाई अड्डों पर ये सुविधाएं कितनी होती है, इसकी तुलना में रेलवे यात्री सुविधाओं के लिये रेलवे ने पहले से ही काफी निवेश कर रखा है। क्या स्टेशन केवल चमकने चाहिए और पार्सल व माल कार्यालय गंदगी की ढेर होनी चाहिए। तो हम यह मानकर चलें कि रेलवे पर होने वाली चर्चाएं भी असंतुलन का शिकार हंै।
यदि पूर्व रेल मंत्री दिनेश त्रिवेदी स्टेशन परिसर, खाली जमीन, पुराने स्क्रैप की बिक्री के जरिये रेलवे के राजस्व को बढाने का प्रयास कर रहे थे तो वह हर तरह से उचित कदम था। रेलवे अपने निवेश का अधिकतम उत्पादक रिटर्न प्राप्त करे। जरूरी नहीं रेलवे अपनी राजस्व अक्षमताओं को ढंक़ने का प्रयास पैसेंजर किराये में भारी बढ़ोत्तरी के जरिये करे। इस दिशा में रेलवे अपनी परिसंपत्ति का नये सिरे से मूल्यांकन करने के साथ साथ अपनी कर्मचारियेां की उत्पादकता की ऑडिट करने का प्रयास करें तो यह एक बेहतर कदम होगा। चूंकि जिस तरह से पैसेंजर ट्रेन में टीटी पद का उन्मूलन जरूरी है उसी तरह से रेलवे के ऐसे कई महकमे हैं जिसकी कोई जरूरत नहीं है और वे सरकारी सफेद हाथी की तरह पोशे जा रहे हैं और वे रेलवे पर बोझ बने हुए हैं। रेलवे में किस किस तरह से भ्रष्टाचार पनपे हुए हैं अगर इसका पता लगाया जाए तो मालूम चलेगा कि इसे कई अधिकारियों, ठेकेदारों और दलालों के द्वारा इसका चूना लगाया जा रहा है। मिसाल के तौर पर रेलवे की पार्सल की सेवाओं को लें। आप किसी सामान का पार्सल कराने जाएं। वहां एक कार्टन भेजने पर पार्सल शुल्क 50 रुपये है पर इसका चौगुना 200 रुपये दलाल और कुली वसूल लेते हैं। इसी तरह से रेलवे में खान पान की व्यवस्था का आईआरसीटीसी क े देखरेख में लूट मचा हुआ था। ट्रेन में 10 रुपये की लागत का खाना 6० रुपये में मिलता है जबकि रेलवे को अपने पेन्ट्री कार के एवज में सिर्फ 12 प्रतिशत कमीशन प्राप्त होता है। क्या यह रेलवे का कुप्रबंधन नहीं है जो राजस्व रेलवे के पास जाना चाहिए वह दलालों के पास जा रहा है। सवाल ये है कि जिस स्रोत से रेलवे को आमदनी हो रही है यानी फ्रेट व टिकट काउंटरों से, उसकी संख्या कम क्यों है? टिकट काउंटरों की संख्या दो गुनी तिगुनी क्यों नहीं की जाती। ये जीजें जनता का वास्तव में भला करेगी साथ ही रेलवे के राजस्व में बढ़ोत्तरी करेगी।
पूर्व मंत्री दिनेश त्रिवेदी ने रेलवे की परिसंपत्ति की उत्पादकता को लेकर जरूर पहल शुरू की पर रेल कर्मचारियों की उत्पादकता और उनमे आपसी कार्यविसंंगति को दूर करने का प्रयास नहीं किया। इस रेल बजट में रेलवे की परिचालन लागत अनुपात को अगले पांच साल में 95 प्रतिशत से घटाकर 74 प्रतिशत करने का लक्ष्य निर्धारण बेहद स्वागत योग्य कदम माना जा सकता है। जाहिर है इससे रेलवे के राजस्व अतिरेक में काफी बढ़ोत्तरी होती। पर विडंबना ये है कि बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी जो नि:संदेह एक ईमानदार और बेहद जुझारू राजनीतिज्ञ की अनूठी मिसाल रही हैं, परंतु अपनी सस्ती आम जन की राजनीति के जरिये रेलवे में लाये जाने वाले कई बुनियादी सुधारों की बलि चढ़ा दी। उनके नवनियुक्त रेल मंत्री मुकुल राय ने आते आते यात्री किराये सेकेन्ड क्लास, स्लीपर क्लास और एसी-3 किराये में बढोत्तरी वापस ले ली और साथ ही रेलवे बोर्ड में दो नये सदस्य, सुरक्षा व विपणन की नियुक्ति के प्रस्ताव को वापस ले लिया। पर इससे आम जन को राहत नहीं मिलने वाला है, आम जन को राहत तभी मिलेगा जब वह वाजिब कीमत पर आन डिमांड टिकट प्राप्त करेगा और उसे टीटी की पेनाल्टी से निजात मिलेगी। ऐसा तभी संभव है जब रेलवे प्रतियोगी होगा और उसमे आधारभूत सुविधाओं पर निजी क्षेत्र की तरफ से भारी निवेश आएगा। हमारे सामने टेलीकाम क्षेत्र इसकी सबसे बड़ी मिसाल है। जबतक यह क्षेत्र सरकारी कंपनी के एकाधिकार में था तबतक उपभोक्ताओं का शोषण था पर जब यह क्षेत्र प्रतियोगी बना इसके फायदे सबके सामने मौजूद हैं।

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