It is name of my column, being published in different print media.It is basically the political-economic comments,which reflects the core ideology, observation and suggestion related to different socio-economic problems of the country as well as the factors which are instrumental for the complete change in the system.
Tuesday, July 24, 2012
राजअर्थ लोकतंत्र को भावुकता आधारित राजनीति और लुभावने आर्थिक कदमों से मुक्त करने की दरकार नीतियों का निर्धारण आम लोगों को मिलने वाले वास्तविक फायदे के आधार पर मनोहर मनोज
आजकल राजनीति से लेकर अर्थव्यवस्था के गलियारों तक सर्वत्र गुड गवर्नेन्स यानी सुशासन की चर्चा दिखायी देती है। सुशासन से तात्पर्य एक ऐेसी शासन व्यवस्था से है जे एक तरफ तो हर तरह के भ्रष्टाचार से मुक्त हो तो दूसरी तरफ इसमे देश के राजनीतिक और आर्थिक प्रबंधनों के बीच एक सही सामंजस्य व सही संतुलन बिठाया जाता हो। कहना न होगा कि एक लोकतंत्र में जहां लोगों में राजनीतिक और आर्थिक आशाएं-अपेक्षाएं दोनों एक साथ मौजूद रहती हैं, वहां इन दोनों अपेक्षाओं के बीच एक विरोधाभास की भी स्थिति मौजूद होती हैं। इसीलिए कई बार यह कहते सुना जाता है कि एक अच्छी राजनीति खराब अर्थव्यव्था को दावत देती है तो दूसरी तरफ एक अच्छी आर्थिक पहल राजनीतिक रूप से विफल कदम साबित हो जाती है। कई बार सरकारे विकास और सुधार कार्य बेहतर कर भी चुनाव हार जाती हैं और कई बार बिना विकास किये भावुक मुद्दों को उकसाकर और स्फीतिकारी आर्थिक कदमों की घोषणा कर पार्टिया चुनाव जीत जाया करती हैं। इन परस्पर विरोधाभासों के बीच हमे यह बात अच्छी तरह समझ लेनी होगी कि एक लोकतंत्र का मतलब केवल चुनावी प्रक्रिया व प्रणाली के जरिये प्रतिनिधि सरकारों की स्थापना कर लेना भर नहीं है। लोकतंत्र की स्थापना की कुछ बुनियादी शर्ते होती है जिसे इसके मूलभूत सिद्धांतों के रूप में चलना जरूरी होती है। आज जहां जहां लोकतंत्र हैं वहां इन मूलभूत सिद्धांतों को ढ़ोया भी जा रहा है मसलन कानून का शासन, शक्ति पृथक्कीकरण का सिद्धांत, थ्री टायर शासन व्यवस्था वगैरह वगैरह।
लेकिन अब जबकि लोकतंत्र में सुशासन की मांग नये सिरे से जोर पकड़ रही है तो ऐसे में उस लोकतंत्र में कुछ नये मूलभूत सिद्धांतों को शामिल करने की दरकार आन पड़ी है। भारतीय लोकतंत्र के प्रसंग में बात करें तो ये नये मूलभूत सिद्धांत दो हो सकते हैं पहला कि भारत में समूची राजनीतिक गतिशीलता, राजनीतिक दलों की कार्यप्रणाली और समूची चुनावी तौर तरीके जो पूरी तौर से जाति, समुदाय, धर्म, क्षेत्र, भाषा व संस्कृति, राजनीतिक खानदान व व्यामोही छवि जैसे भावुकता आधारित मुद्दों से ओतप्रोत हैं, उन सभी तत्वों से लोकतंत्र को संवैधानिक रूप से पूर्ण मुक्ति दिलवाकर इसे विशुद्ध प्रतियोगिता आधारित बनाया जाए जो सीधे सीधे चुनावी उम्मीदवारों और चुनावी पार्टियों को गुड गवर्नेन्स की कसौटी पर कसे।
दूसरा मूलभूत सिद्धांत जो हमारे लोकतंत्र में शामिल किया जा सकता है वह है कि अर्थव्यवस्था में किये जाने वाले वैसे सारे कथित लोकप्रिय निर्णय या घोषणाएं जो चाहे चुनावी साल व समय में किया जाए या फिर बाकी दिनों में किये जाए, उस पर संवैधानिक रूप से प्रतिबंध लगाना। इन कथित लोकप्रिय निर्णयों में विभिन्न तरह की सब्सिडी , फालतू कर रियायतें, फ्री पानी बिजली, कर्ज माफ ी व खैरात बांटने वगैरह शामिल है। इन्हे हटाकर ऐसी आर्थिक नीतियों व निर्णयों क ो अपनाना जो असल रूप से व पारदर्शी तरीके से आम आदमी के वास्तविक हितों की पूर्ति करें जो उनकी रियल इनकम व जीवन स्तर में बढोत्तरी सुनिश्चित कर सके। इन परिस्थितियों में आम आदमी को न तो मायावी रियायत मिलेगी और न ही उनपर अचानक आर्थिक बोझ पड़ेगा। इन दो मूलभूत सिद्धांतों को हमे अपने संविधान में वही दर्जा दिलाना पड़ेगा जो दर्जा मौलिक अधिकारों और नीति निर्देशक तत्वों के रूप में मिला है।
उपरोक्त दोनो बिंदुओं यानी गैर बुनियादी व भावुक मुद्दों आधारित राजनीति और दूसरा एक हाथ से खैरात बांटने वाली पापुलिस्ट कदम और दूसरे हांथ से गला मरोडऩे वाले कर प्रस्ताव , जिसे अब तक भारतीय लोकतंत्र का व्यवहारिक रूप से एक कार्यकारी सिद्धांत मान कर चला जाता रहा है उसे अब गुड गवर्नेन्स की जरूरत के अनुसार हमेशा के लिये खत्म करने की दरकार है। ये कदम भारत में शासकों की पूरी पूरी अग्रि परीक्षा लेगा। कुछ लोग यह मान सकते हैं कि इन दोनो कारकों को लोकतंत्र से डिस्क्वालीफाङ्क्षइग बना देने से देश में सामाजिक राजनीतिक व आर्थिक न्याय पर रोक लग जाएगी जबकि हकीकत ये है कि लोकतंत्र के इन मौजूदा कारकों के जरिये भारत में आम लोगों के आर्थिक राजनीतिक सामाजिक अवसरों का भक्षण किया जा रहा है।
हम इस बात को बड़े फक्र से कहते हैं कि हमारे यहां लोकतंत्र कायम है पर हकीकत ये है इतने साल बीतने के बाद और इनमे कुछ सुधारों को अमली जामा पहनाये जाने के बावजूद इसमे अभी ढ़ेरो कमियां और खामियां विराजमान हैं। अगर कोई लोकतंत्र कुछ पूर्व जरूरी बुनियादी सुधारों से युक्त नहीं है तो वह कभी भी सुशासन का प्लैटफार्म प्रदान नहीं कर सकता। यह लोकतंत्र किसी निरंकुश तंत्र का एक बेहतर विकल्प भले साबित हो पर इस तंत्र से जनअसंतोष की संभावना हमेशा बनी रहेगी। हो सकता है कि भारत का लोकतंत्र भारत को मिस्र, सीरिया, लीबिया जैसे देशों से बेहतर दिखाता हो या फिर यह हमारे इस्लामिक पड़ोसी देशों पाकिस्तान व बांग्लादेश से बेहतर हो पर इसके बावजूद अभी भी भारत के लोकतंत्र में सामंतशाही, दौलतशाही, बाहुबलशाही, नेताशाही ,नौकरशाही, परिवारशाही जैसे अनेक विचलित कर देने वाले तत्व बखुबी से मौजूद हैं। हालांकि यह सही है कि हमारे यहां चुनावी प्रक्रिया पहले से सख्त हुई है और धनसत्ता और बाहुबली सत्ता पर पहले की त़ुलना में अंकुश लगा है। 1985 के दलबदल कानून तथा व्यस्क मताधिकार के जरिये इस दलीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में कुछ हद तक सुधार संभव हुआ है। पर आज भी हमारा बहुदलीय लोकतंत्र कुछ चंद बड़े नेताओं की मठाधीशी का केन्द्र बना हुआ है। राजनीतिक दलों से जुड़े कार्यकर्ता सत्ता मे आने पर दलाली करने का इंतजार करते है। समाज के संवदेनशील, योग्य व कमजोर वर्ग के प्रति समर्पित व्यक्ति राजनीति में मौजूद सड़ांढ को देखकर उनमे प्रवेश करने से मुह मोड़ लेते हैं। राजनीति भी सिनेमा की तरह गॉड फादर संस्कृति की पोषक बनी हुई है।
राजनीतिक आरक्षण के जरिये कमजोर वर्ग के नाम पर उनके प्रतिनिति विधानमंडलो में जरूर आ जाते हैं पर नेतृत्व गुणवत्ता के अभाव में इन वर्गो के असंख्य लोग के हालात पर इसका कोई असर नही दिखता। व्यापक सामाजिक न्याय, अवसर की समानता, कमजोर वर्ग व पिछड़े इलाको में सामाजिक व आर्थिक आधारभूत संरचनाकी व्यापक रूप से स्थापना जैसे बुनियादी कारकों की प्राप्ति का लक्ष्य इन दो नये मूलभूत सिद्धांतों के समावेश के जरिये ही प्राप्त की जा सकती है।
हमें यह एक बात जरूर ध्यान मे रखनी चाहिए कि जिस तरह से अर्थव्यवस्था में प्रतियोगिता की बहाली उपभोक्ताओ को आर्थिक उत्पादोंं और सेवाओं को उचित मूल्य एवं बेहतर क्वालिटी दिलाने में मदद करती है उसी तरह से चुनावी राजनीति मे विशुद्ध प्रतियोगिता ही क्वालिटी नेतृत्व पैदा करेगा जो शासन व प्रशासन के संचालन को बेहतर और आम लोगों का हितैषी बनाएगा। आज हमारी राजनीति में क्या हो रहा है, सारी चीजे खानापूर्ति तरीके से की जा रही हैं और इसका नतीजा ये है कि सामाजिक न्याय का दायरा व्यापक न होकर आरक्षण तक सीमित रह गया है। कल्याणकारी शासन व्यवस्था वास्त्व में कल्याणकारी न होकर जनता को एक हांथ से प्रलोभन तो दूसरे हांथ से महंगाई भ्रष्टाचार तले दबाया जा रहा है। घर्मनिरपेक्षता की आड़ में सभी धर्मों का संप्रदायवाद अलग अलग ढंग से भडक़ाया जाता है। ऐसे में हमारा लोकतंत्र इस बात का इंतजार कर रहा है कि इसमे भावुक राजनीति और लुभावनी अर्थव्यवस्था से कैसे मुक्ति दिलायी जाए।
भारत में अभी तक वोट जाति,धर्म, संप्रदाय, भाषा, क्षेत्र, संस्कृति, परिवार तथा खानदानवाद व मठ क ी तरह काम कर रही पार्टियों के आधार पर मांगे जाते हैं, इसी आधार पर चुनावी उम्मीदवारों का चयन होता है, वोट बैंक की रणनीति बनायी जाती है इसके बाद हीं गवर्नेन्स में प्रदर्शन का मानदंड देखा जाता है हम इस चुनावी राजनीति को शत प्रतिशत गवर्नेन्स का मानदंड नहीं बना सकते? क्या हम चुनावी प्रक्रिया को विशुद्ध प्रतियोगी नहीं बना सकते। हमारा जनप्रतिनिधित्व कानून किसी संप्रदायिक आधार पर चुनावी सभा की इजाजत नहीं देता पर हमारी भारतीय राजनीति की समूची सोशियोलॉजी किन कारकों से संचालित होती है यह सबको मालूम है।
हम यह नहीं मानते कि देश की राजनीति हर तरह के गुटवादिता से मुक्त हो जाएगीे, कोई न कोई गुट तो होगा अन्यथा राजनीति में प्रतियोगिता की स्थिति कैसे आएगी। अगर भारतीय राजनीति में कृषि व उद्योग, गांव व शहर, कुशल कर्मचारी बनाम अकुशल मजदूर के आधार पर यदि राजनीतिक गुट बनते हैं तो वे उतने खतरनाक नहीं हैं जितने क ी उपरोक्त वर्णित गुट। हमारे राजनीतिक दलों की समूची कार्यप्रणाली कहीं से भी लोकतांत्रिक व प्रगतिशील तरीके की नहीं है। न उनके यहां गवर्नेन्स का कोई विजन है, न कोई पालिसी रिसर्च है, न संगठन में प्रतिभाओं का आमंत्रण है और ना हीं जनता को शासन प्रशासन के बारे में बेहतर तरीके से शिक्षित करने का वे काम करते हैं। पार्टियों में केवल व्यक्ति पूजा है। सही सूचना के बजाए वहां या तो अतिप्रचार है या दुश्प्रचार है। कोई सुप्रचार की स्थिति नहीं है। नेता अपने वर्चस्व बनाने के लिये किसी स्तर के घटियापे पर जाने को उतारू हैं। ये चीजे तभी सुधरेंगी जब हम संविधान में राजनीतिक दलों की कार्यप्रणाली को नये सिरे से परिभाषित करेंगे।
लोकतंत्र में दूसरे बुनियादी सिद्धांत जोडऩे की जो हम बात कर रहे हैं वह लोकतांत्रिक अर्थव्यवस्था को सभी तरह के लुभावनी घोषणाओं और कार्यक्रमों के बजाए बुनियादी सुधारों व कल्याणकारी उपायों से जोड़ने का कार्यक्रम। हम उस आर्थिक नीति को बेहतर मानते हैं जो अर्थव्यवस्था में विकास को प्रोत्साहित करें और दूसरा साधन संपन्न्न तबके से साधनहीन तबके को आर्थिक शक्तियों का हस्तानांतरण करे। यह हमारे विकास मूलक और समता मूलक अर्थव्यवस्था का मूल आधार है। भारत में लोगों को लगता है कि यहा जो सब्सिडी की व्यवस्था लागू है वह गरीबो की हितैषी है जबकि हकीकत ये है उससे ज्यादा राशि गरीबों और किसानों से महंगाई और भ्रष्टाचार के बहाने ले ली जाती है। और जनता को प्राप्त होने वाला आर्थिक कल्याण या तो शून्य है या नकारात्मक साबित होता है। भारत में सब्सिडी के बहाने प्रशासनिक अक्षमता और भ्रष्टाचार का पोषण हो रहा है। सब्सिडी के जरिये एक तरफ सरकारी संसाधनों को अनुत्पादक बनाया जाता है तो दूसरी तरफ ं जनता के उत्पादक संसाधन को कर के रूप में वसूल कर इसकी भरपाई की जाती है। यह कौन सी नीति है। पहले हम बात करे किसानों की दी जाने सभी तरह की सब्सिडी पर। किसानों को उर्वरक, बिजली, कृषि ऋण जैसे लागतों पर सब्सिडी दी जाती है। पर इनके समुचित मूल्य नीति के अभाव में इनके सभी उत्पादो को अवमूल्यित कर इनको दी जाने वाली सब्सिडी नकारात्मक दो प्रतिशत हो जाती है। सबको मालूम है कि उर्वरक सब्सिडी का पिछले साठ सालों में उर्वरक कंपनियो ने लूटने का काम किया है। इसी तरह हम बात करें निर्यात पर दी जाने वाली सब्सिडी की। सब्स्डिी प्राप्त निर्यातित सामान विदेश भेजने के बजाए घरेलू बाजार में भेज दिये जाते हैं। सरकार कहती है कि वह पेट्रोलियम उत्पादों पर 45 हजार करोड़ रुपये की सब्सिडी देती है पर इसका चार गुना पैसा वह करों के रूप में जनता से वसूल लेती है। उसी तरह पेट्रोल उपभोक्ताओं को डीजल और एलपीजी का घाटा वहन करना पड़ता है। किरोसिन पर सरकार सब्सिडी देती है पर वह ग्रामीण बाजार केअलावे शहरों में या तो डीजल मे मिलाया जाता है या खाना पकाने के लिये ब्लैक में बेचा जाता है। अगर सरकार सभी सब्सिडी हटा ले और इन पर आरोपित करों को युक्तिसंगत बनाकर इन पर आरोपित कर मूल्यानुसार के बदले भारित आधार पर करें तो यह उपभोक्ता को एक नियत व स्थिर मूल्यो ंपर प्रदान किया जा सकता है।
सब्सिडी के इतर सरकारों द्वारा चुनाव के वक्त स्फीतिकारी आर्थिक घोषणाओं के जरिये अर्थव्यव्स्था का कैसे घोर नुकसान किया जाता है इसकी सबसे बड़ी बानगी 2009 लोकसभा चुनाव के वक्त देखने को मिली जब युपीए सरकार ने 70 हजार करोड़ रुपये की कर्जमाफी, 40 हजार करोड़ रुपये लागत वाली अनुत्पादक मनरेगा योजना तथा 1 लाख करोड़ की लागत वाली छठे वेतन आयोग की अनुशंसा लागू करने का काम किया। इन लुभावनी घोषणाओं से युपीए चुनाव तो जीत गयी पर इन कदमों से देश का वित्तीय घाटा सकल घरेलू उत्पाद के 4.5 प्रतिशत से बढक़र 6.5 प्रतिशत हो गया। इसका नतीजा सबके सामने है कि मुद्रा स्फीति बीस प्रतिशत तक गयी, खाद्य स्फीति तीस प्रतिशत तक गयी और महंगाई का दावानल लगातार तीन सालों से देश की 120 करोड़ जनता को डंसते जा रहा है। इसके विपरीत 2004 का लोकसभा चुनाव देखिए एनडीए ने बिना किसी लुभावनी आर्थिक घोषणा किये तत्कालीन आर्थिक विकास का आशावादी हवाला देकर लड़ा और वह चुनाव हार गयी, क्योंकि उसमे पापुलिस्ट घोषणा नहीं थी ।
आज मनरेगा के जरिये गांवों में पैसे की लूट हो रही है पर देश के 10 करोड़ बूढों को माहवारी पेंशन के नाम पर महज 200 रु पये का देकर टरका दिया जाता है, वह भी हर छह महीने पर दिया जाता है। आखिर यह कौन सा आर्थिक लोकतंत्र है। अगर देश में किसानों को कुछ न दिया जाए उन्हें केवल उनके उत्पादो का लागत युक्त मूल्य दे दिया जाए उनकी बहुत बड़ी सेवा होगी, उन्हे उर्वरक, बीज पानी देकर भ्रष्टाचार का कुनबा तैयार करने की कोई जरूरत नहीं है। वैसे भी खाद्य सब्सिडी के जरिये सरकार कृषि को तबाह कर रही है। पीडीएस प्रणाली के जरिये एक तरफ सरकार जनता के करों को सब्सिडी पर बहा रही है तो दूसरी तरफ भ्रष्टाचार का एक नया भस्मासुर पोसा जा रहा है। यूपी और अरूणचल में लाखो करोड़ के खाद्यान्न घोटाले इसी नीति के नतीजे हैं। सरकार गरीबों को सस्ता राशन देने को तैयार है पर उनकी क्रयशक्ति बढाने को तैयार नही है। उपभोग हमेशा उपभोक्ता की मनमर्जी के मुताबिक होना चाहिए। हम यह पैसा ग्रामीण पूंजीगत व सामाजिक आधारभूत सुविधाओं पर खर्चँ करे तो यह बिना सब्सिडी के एक उत्पादक अर्थव्यवस्था का सूत्रपात करेगा।
सरकार सभी तरह की सब्सिडी बंद करें। सभी अनुत्पादक रोजगार योजना बंद करें। सामाजिक व पूंजीगत संरचना पर निवेश बढाये। सामाजिक सुरक्षा की योजना को काफी व्यापक करे। करों को युक्तिसंगत बनाये। कृषि को लाभकारी पेशा घोषित करे। सभी कृषि उत्पादों का न्यूनतम व अधिकतम मूल्य घोषित करे। देश के सभी मजूदरों को महंगाई सूचंकांक से जोड़े और सार्वजनिक वितरण प्रणाल को आपदा संकट व देश केदूरदराज व आदिवासी इलाकों के लिये सुरक्षित रखे। सभी सरकारी खर्चे की इकोनामिक व सोशल आडिट करे। ये सारे कदम तभी सुनिश्चित होंगे जब हम देश की पापुलिस्ट अर्थव्यव्स्था केबजाए बुनियादी रूप से मजबूत अर्थव्यव्स्था बनाएंगे। यही कदम आम आदमी के आर्थिक खुशहाली को सुनिश्चित करेगी और इन कदमों से भ्रष्टाचार पर बहुत बड़ी नकेल लगेगी।
हमे यह मान लेना होगा कि वर्ग आधारित भावुक राजनीति भारतीय लोकतंत्र का सदा नुकसान करेगी और उसी तरह से वोट कैचिंग लुभावनी आर्थिक घोषणाएं जनता पर महंगाई भ्रष्टाचार का वार करेंगी। ये जीजें अल्पकाल में भोली भाली जनता को तो आनंद देती है पर दीर्घकाल में रूलाने का काम करती है। यदि हम देश का लंबे समय तक बेहतर राजनीतिक आर्थिक स्वास्थ्य चाहते हैं तो हमे उपरोक्त दो बुनियादी सिद्धांतों को भारतीय लोकतंत्र पर थोपना होगा। यथास्थितिवादियों को यह बात नागवार लगेगी पर परिवर्तनकामी विचारधारा की संपुष्टि के लिये यह जरूरी है इसे अमली जामा पहनाया जाए। नहीं तो मौजूदा स्थितियंा हमारे लिये शासन को सुशासन के बजाए दु:शासन में बदलेगी। किसान गरीब होंगे और गरीब हाशिये पर चले जाएंगे और शासक वर्ग लोकतंत्र की उपस्थिति में भी निरंकुश बना रहेगा।
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