Wednesday, January 4, 2012

भ्रष्टाचार उन्मूलन या सत्ता हिस्सेदारी
क्या है मकसद लोकपाल का
मनोहर मनोज,
इस देश के लिए यह परम सौभाग्य का अवसर है कि भारत के सर्वकालीन और सर्वाधिक महत्वपूर्ण मुद्दा भ्रष्टाचार की चर्चा का शंखनाद देश में अभी सर्वत्र गुंज रहा है। विधानमंडलों, सार्वजनिक मंचों से लेकर मीडिया और आम जनमंंडलियों में भ्रष्टाचार को लेकर लगातार बहस मुबाहिसा हो रहा है। भ्रष्टाचार पर चर्चा का माहौल इस देश में कुछ खास अवसरों पर ही बना। 1974 का जयप्रकाश आंदोलन, 1989 का विश्वनाथ प्रताप आंदोलन और 2011 के अन्ना हजारे भ्रष्टाचार के खिलाफ आंदोलनों के प्रमुख सूत्रधार रहे। परंतु अबकी बार का आंदोलन ज्यादा महत्वपूर्ण है, क्योंकि भ्रष्टाचार की लड़ाई राजनीतिक सत्ता हासिल करने के लिए नहीं लड़ी जा रही है, बल्कि इसे आम जन के लिए भ्रष्टाचार मुक्त राजनीतिक प्रशासनिक व्यवस्था लोकपाल की स्थापना की जरूरत के रूप में लड़ी जा रही है।
देखा जाए तो भ्रष्टाचार को लेकर मौजूदा लड़ाई एक बहुत अच्छा लक्षण है पर परंतु यह लड़ाई हमे वास्तव में देश में भ्रष्टाचार मुक्त व्यवस्था नहीं देने जा रही है कम से कम अगले कुछ सालों में । जो लोग सोचते हैं कि सिविल सोसाइटी के जनलोकपाल प्रस्ताव के जरिए इस देश में एकदम से भ्रष्टाचार मुक्त व्यवस्था का सूत्रपात हो जाएगा, तो वह दिवास्वप्र देख रहे हैं या दिखा रहे हैं। क्योंकि लोकपाल एक महज संस्था होगी, जो इस देश में लोकतंत्र के पांचों खंभों विधायिका, न्यायपालिका, कार्यपालिका, मीडिया और गैरसरकारी संगठनों के अलावा छठे खंभे के रूप में काम करेगी। देश में भ्रष्टाचार उन्मूलन का कार्य एक व्यापक राष्ट्रीय कार्ययोजना से संभव है, जिसका लोकपाल एक हिस्सा मात्र हो सकता है। भ्रष्टाचार उन्मूलन का कार्य एक अटूट राजनीतिक इच्छाशक्ति, एक व्यापक राष्ट्रीय कार्ययोजना, एक व्यापक सामाजिक जनजागरण, एक नई आधुनिक प्रशासनिक व्यवस्था की स्थापना और कुल मिलाकर देश के सार्वजनिक जीवन में एक नई व्यवहार संस्कृति की शुरुआत से जुड़ा है। यह जरूर कहा जा सकता है कि जनलोकपाल की लड़ाई उपरोक्त सारे पहल का एक सांकेतिक प्रतिनिधि साबित हो।
यहां इस बात की चर्चा जरूरी है कि राजनीतिक व्यवस्था के रूप में लोकतंत्र का इस दुनिया में आगमन क्यों हुआ और दुनिया के तमाम देशों में इसे अपनाने के लिए आंदोलन क्यों हुए। दरअसल भ्रष्टाचार की रोकथाम और सुशासन की पहली लड़ाई दुनिया के तमाम देशों में लोकतंत्र की स्थापना के तौर पर हुई। क्योंकि लोकतंत्र में चार पांच बिंदू ऐसे हैं, जो कुछ हद तक शासकों पर जनता के नकेल को कायम रखते हैं मसलन जनता के चुने प्रतिनिधि द्वारा सरकार का संचालन, एक निश्चित समय अंतराल में प्रतिनिधियों का चुनाव, शक्ति पृथक्कीकरण का सिद्धांत मसलन विधायिक न्यायपालिका और कार्यपालिका का अलग-अलग कार्यक्षेत्र और तीनों का एक-दूसरे पर प्रभावी रोक व संतुलन। आज जहां लोकतंत्र स्थापित है और यदि वहां लोग भ्रष्टाचार की लड़ाई लड़ रहे है वह निश्चित रूप से लोकतंत्र की स्थापना की दूसरे चरण की लड़ाई लड़ रहे हैं। यह लड़ाई है लोकतांत्रिक संस्थाओं को नए सिरे से पुनर्गठित करने और उन्हें ज्यादा से ज्यादा सक्षम बनाकर शासन प्रशासन को और ज्यादा जनोन्मुखी और प्रभावकारी बनाने को लेकर हैं।
कहना न होगा लोकतंत्र में लोकोन्मुखी शासन की परिकल्पना हम केवल इस आधार पर करते हैं कि जो लोग चुने प्रतिनिधि हैं वही इस देश की समूची शासन व्यवस्था की देखरेख करते हैं। इसे हम सिविल सरकार बताते हैं, जबकि हकीकत ये है कि इसका कोर हिस्सा नौकरशाही से भरा हुआ है। केन्द्र सरकार की बात करें तो करीब 800 लोकप्रतिनिधियों के एवज में इसमे 65 लाख कर्मचारी संलग्र हैं। इसी तरह हम राज्य सरकारों की बात करें, तो करीब 5 हजार जनप्रतिनिधियों के एवज में करीब डेढ़ करोड़ कर्मचारी इस शासन व्यवस्था में हिस्सेदार हैं। इसी तरह लोकतंत्र के तीसरे टायर पंचायती व्यवस्था की बात करें तो करीब पांच लाख जनप्रतिनिधियों के एवज में कर्मचारियों की संख्या 25 से 30 लाख है। इस नौकरशाही को इस हिसाब से लोकतंात्रिक शासन व्यवस्था का अंग माना जाता है। वह चुने हुए प्रतिनिधि के जरिए नियंत्रित और निर्देशित किए जाते हैं, जबकि हकीकत कुछ और है।
बेशक इस देश के राजनीतिक लोकतंत्र में सुधार के कई पहलू पिछले दशकों में उभर कर सामने आए हों। मसलन टी एन शेषन के जरिए चुनाव सुधारों की शुरुआ जो अभी कुरैशी तक जारी है। इसी तरह एन विठ्ठल के जरिए प्रशासनिक कार्यवाहियों में सूचना प्रौद्योगिकी का इस्तेमाल शुरू हुआ, धीरे-धीरे वह हमारी प्रशासनिक व्यवस्था का एक अंग बनता जा रहा है। दरअसल अभी सरकार और सिविल सोसाइटी के बीच भ्रष्टाचार पर लोकपाल बनाने को लेकर जो रस्साकशी हो रही है वह मामला एक तरह से श्रम संघों की सामूहिक सौदेबाजी की तरह हो गया है, जबकि हकीकत यह है कि भ्रष्टाचार की लड़ाई किसी एक खास गुट के हित को लेकर नहीं है, बल्कि यह सभी देश के सभी शासित जनता के हित की लड़ाई है। जिस तरह से सिविल सोसाइटी जो मूलत: देश के गैरसरकारी संगठनों की एक जमात है, द्वारा बनाए जनलोकपाल के मसौदे पर सरकार टालमटोल कर रही है। दोनों पक्षों द्वारा द्विपक्षीय दबाव की रणनीति अपनार्ई जा रही है। इससे यही लगता है कि लोकपाल के जरिए भ्रष्टाचार उन्मूलन के बजाए सत्ता के पुराने शक्ति केन्द्रों कार्यपालिका, विधायिका, न्यायपालिका और मीडिया और लोकपाल के रूप में उभरने वाले नए शक्ति केन्द्र के बीच की आपसी हितों की टकराहट है।
सैद्धांतिक तरीकों से देखें तो लोकतंत्र के चार खंभे एक दूसरे को चेक एंड बैलेंस और क्रास चेक करते हैं। मसलन कार्यपालिका यदि शासन का कोई प्रस्ताव चाहे नीति मसौदा हो, नया कानून या पुराने कानून का संशोधन मसौदा हो या सरकार के कार्यों का पूरा ब्योरा हो, विधायिका उसे देखती परखती है, न्यायपालिका उसका पुनरीक्षण करती है, मीडिया उसकी टीका-टिप्पणी करती है। कही न कहीं इस प्रक्रिया में भी कुछ न कुछ भ्रष्टाचार की स्कैनिंग और
स्कू पिंग होती है। अब इन शक्ति केन्द्रों में लोकपाल के रूप में यदि नई संस्था का आगमन होता है तो यह बहस मंथन होनी चाहिए। क्या यह पांचवा अंग उस क्रास चेक को नया आयाम देगा। ऐसे में उन पूर्व सत्ता केन्द्रों को नए सत्ता केन्द्र का आगमन स्वीकार्य होगा। चूकि जिस तरह से निरंक ुश तंत्र को लोकतंत्र का आगमन नागवार लगता है, उसी तरह से अभी लोकपाल का आगमन इस चौखंभे लोकतंत्र को नागवार लगता है।
आखिर लोकतंत्र के चारों खंभों को यही लगता है कि हमारी कार्यप्रणाली की अलग-अलग जबाबदेहियां निर्धारित हैं। मसलन विधायिका को ये लगता है कि हमारी सही गलत की परख चुनावों में जनता कर देती है, नौकरशाही को ये लगता है कि हमारे सही गलत की परख जनता के चुने प्रतिनिधि करते हैं। न्यायपालिका को ये लगता है कि हमारे सही गलत की परख हमारे ऊपर के कोर्ट करते हैं और अंत में संसद में महाभियोग के जरिए होता है। मीडिया को ये लगता है कि हमारे सही गलत की परख पाठक करते हैं। ऐसे में लोकपाल आकर इन सत्ता के काकस में सेंध लगाने का काम करेगा।
दरअसल, हमने देश में जिन संस्थाओं को नियंत्रित करने के लिए दूसरी संस्थाओं को स्थापित किया है वह चेक एंड बैलेंस के बजाए पावर में हिस्सेदार बन जाती है। मसलन भ्रष्टाचार दूर करने के लिए जो संस्थाएं मौजूद हैं वह भी उस भ्रष्टाचार का हिस्सेदार बन जाती हैं। अगर हम सीबीआई का उदाहरण लेते हैं तो ठीक है कि वह स्वायत्त नहीं हैं। वह राजनीतिक मामलों में सत्ताधारी नेताओं को बचा सकती है पर गैर राजनीतिक मामलों में उसका प्रदर्शन बेदाग क्यों नहीं हैं। अगर हम स्वायत्तता की बात करें तो कई संस्थाएं सुदूपयोग के बजाए उसका दुरूपयोग करती हैं। ऐसे में कोई अलग संस्था का गठन वांछित परिणाम देगा इसकी कोई गारंटी नहीं है।
हमारे सामने भ्रष्टाचार दूर करने के कई रोल मॉडल हैं। मसलन सूचना प्रौद्योगिकी का प्रयोग, किसी भी उद्योग और व्यवसाय में प्रतियोगिता को बढ़ावा, खुले बाजार की नीति, नई तकनीक इत्यादि। कहा जाता है कि स्वायत्त संस्था दिल्ली मेट्रो में भ्रष्टाचार नहीं है, आखिर और भी स्वायत्त संस्थाएं हैं पर वहां भ्रष्टाचार है। दिल्ली मेट्रो में कोई टीटी नहीं होता, क्योंकि तकनीक ऐसी है कि बिना टिकट के कोई अंदर जा ही नहीं सकता। यहां पर तकनीक काम आ रही है, कोई लोकपाल काम नहीं आ रहा है।
लोकपाल का मुखिया न्यायिक क्षेत्र से होगा। क्या इस देश के न्यायपालिका पर लोगों का विश्वास है। हमे तो यही लगता है किसी मंत्री या एमपी से गुहार लगाकर बिना पैसे का जनता अपना काम करा सकती है पर कोर्ट में कोई केस बिना पैसे का निपटारा हो यह असंभव है।
दुनिया के अन्य देशों में लोकपाल संस्था का प्रदर्शन कैसा रहा है इसको लेकर हमारे पास कोई उदाहरण या तथ्य मौजूद नहीं है। भ्रष्टाचार रोकथाम के और कौन से विकल्प हो सकते हैं। इस पर कोई अध्ययन नहीं हो रहा है। हमारे पास सूचना का अधिकार, सेवा गारंटी कानून जैसे हथियार प्राप्त हो गए हैं। हो सकता है लोकपाल इसमें एक और हथियार हो जाएगा। आज हमे भ्रष्टाचार मुक्त व्यवस्था के एक ऐसे व्यापक विजन की जरूरत है, जो देश के तमाम क्षेत्रों में अलग-अलग व्यापक सुधारों की नींव रखे।
मसलन देश में व्यापक पुलिस सुधार की जरूरत है। न्यायिक सुधार की जरूरत है। देश में एक नई व्यापक मीडिया नीति की जरूरत है। इस देश में कृषि वस्तुओं के अधिकतम और न्यूनतम मूल्य नीति निर्धारित करने की जरूरत है। इस देश में राजनीतिक दलों क ी कार्यप्रणाली और उनके तमाम स्वरूपों पर विचार मंथन की जरूरत है। इस देश में समूचे प्रशासनिक ढांचे को एक नए सिरे से देखने, परखने और तराशने की जरूरत है। इस देश में जनप्रतिनिधियों के सिफारिशों को लेकर एक राष्ट्रीय नीति बनाने की जरूरत है। इस देश में सभी ऑफिसों में सूचना प्रौद्योगिकी के जरिए प्रशासन को ज्यादा पारदर्शी की जरूरत है। इस देश में एक नई कार्यालय संस्कृति बनाने की जरूरत है, जिसमे अफसर एक मार्केटिंग एक्सक्युटिव के रूप में काम करें और जनता को एक क्लांइट के रूप में उपयोग किया जाए। इस देश में एक नई शिक्षा नीति, स्वास्थ्य नीति की जरूरत है। इस देश में सरकारी खर्चों चाहे वह उत्पादक खर्चा हो तो उसकी इकोनॉमिक ऑडिट और जो अनुत्पादक खर्चें हो उसकी सोशल ऑडिट की जरूरत है। ऐसे एक नहीं ढेरों मुद्दे हैं, जो इस देश को बुनियादी रूप से भ्रष्टाचार मुक्त व्यवस्था बनाने के कार्य को अग्रसर करेंगे।
लोकपाल के गठन से शिकायत प्राप्ति और निवारण तंत्र के रूप में यदि कुछ स्थापित होता है, तो उसकी सफलता की सुनिश्चितता पर अभी से कुछ नहीं कहा जा सकता, क्योंकि यह एक नया प्रयोग है। आज भी हर सरकारी कार्यालय में जिम्मेवार अधिकारी शिक ायतें प्राप्त करता है पर उसका निवारण समुचित रूप से नहीं हो पाता है।
जिस तरह से देश में भ्रष्टाचार विरोधी माहौल बना है यदि सरकार इस प्रश्न पर वास्तव में ईमानदार होती, तो वह देश के सभी महकमों, मंत्रालयों, विभागों और अन्य सभी सरकारी संस्थाओं की कार्यप्रणाली और उसमे संभावित भ्रष्टाचार को लेकर एक स्थिति पत्र जारी करती और साथ हीं भ्रष्टाचार निवारण के उपायों की एक संपूर्ण समीक्षा करती। इससे देश में हर संस्था के भ्रष्टाचार के रोकथाम के समुचित उपायों की छानबीन को लेकर एक व्यापक चर्चा होती और इसको लेकर एक राष्ट्रीय आमसहमति की स्थिति बनती।
विडंबना यह है कि भ्रष्टाचार की रोकथाम का अभी सारा मसला लोकपाल के गठन के आस पास केन्द्रित हो गया है। यह एक ऐसा मौका था, जब सरकार भ्रष्टाचार को लेकर एक राष्ट्रीय कार्ययोजना, नीति दस्तावेज, एक राष्ट्रीय अघ्ययन और निरीक्षण दल का गठन करती जो इस देश में हर तरह के भ्रष्टाचार की वस्तु स्थिति से देश को अवगत कराता।
दरअसल अन्ना की टीम भ्रष्टाचार को लेकर एक राजनीतिक शैली से गैरराजनीतिक लड़ाई लड़ रही है। जबकि दूसरी तरफ सरकार और सत्ता के तमाम केन्द्र लोकपाल के जरिए अपने संविधान प्रदत्त शक्तियों पर कुठाराघात मान रहे हैं। ऐसे में भ्रष्टाचार का मूल मुद्दा ओझल हो गया है, जिसका निदान एक व्यापक और समवेत उपायों में छिपा है, जिसके लिए न तो सरकार एक व्यापक राष्ट्रीय अध्ययन दल स्थापित कर रही है और न हीं तमाम सुधारों का नीति पत्र पेश कर रही है। दूसरी तरफ अन्ना टीम यह समझ रही है कि बड़ी मुश्किल से देश में भ्रष्टाचार को लेकर जनआक्रोश का माहौल बना है। ऐसे में सरकार को किसी तरह से रियायत देना मुनासिब नहीं होंगा, क्योंकि लोकतंत्र में भी सरकारें जबतक जनता का भारी दबाव नहीं हो, जरूरी और बुनियादी सुधारों को लाने की पहल नहीं करती। दूसरी तरफ अन्ना टीम यह सोचती है कि लोकपाल संस्था के गठन के जरिए उन्हें देश में भ्रष्टाचार खत्म करने का श्रेय हासिल हो जाएगा। जबकि हकीकत यह है कि संस्थाओं क ा गठन भ्रष्टाचार को निर्मूल नहीं कर सकता। भ्रष्टाचार निवारण का उपाय बहुआयामी सुधारों एवं समवेत उपायों से जुड़ा है, जिसमे कानूनी, नीतिगत, संस्थागत, तकनीकी, आध्यात्मिक सभी तरह के सुधार जुड़े हैं। अन्ना टीम ने लोकपाल बिल की ड्राफ्टिंग जरूर की है पर उनके पास देश में सर्वत्र मौजूद भ्रष्टाचार की मौजूदगी और उसकी रोकथाम की संपूर्ण दृष्टि और समझ नहीं हैं। भ्रष्टाचार को लेकर यह लड़ाई महज कानूनी संस्थागत लड़ाई इसकी व्यापक लड़ाई अभी आगे बहुत लंबी चलेगी। पूर्व राष्ट्रपति कलाम का कथन बिल्कुल सही है कि भ्रष्टाचार मिटे इसके लिए जरूरी है कि देश में चरित्र निर्माण हो।
लेखक इकोनामी इंडिया के संपादक और भारतीय युवा पत्रकार संगठन के अध्यक्ष हैं

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