मुफतखोरी की राजनीति गलत फिर अनाज मुफ्त में क्यों
मनोहर मनोज
अभी हाल में एक आंकड़ा आया कि भारत सरकार की खाद्य सब्सिडी पर होने वाला खर्च बजट लक्ष्य के 2.04 लाख करोड़ के मुकाबले 3 लाख करोड रुपये पार कर चुका है। नीति आयोग के एक वरिष्ठ सदस्य ने इसी से मुतल्लिक एक बयान भी दिया है कि खाद्य सब्सिडी का बढता आकार देश में मुद्रा स्फीति की समस्या को गहराने के अलावा बजट घाटे के आकार को काफी बढा सकता है। जाहिर है कोविड महामारी के बावजूद मुफ्त अनाज की स्कीम को जारी रखने से खाद्य सब्सिडी का यह आंकड़ा बढ़ा। यह स्थिति ना केवल अर्थव्यवस्था के स्वास्थ्य की प्रतिकूल परिस्थितियों की तरफ इशारा कर रहा है बल्कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा देश की राजनीति में रेवड़ी बांटने व राजनीतिक दलों की आपसी प्रतियोगिता में मुफतखोरी व लोकलुभावन कदमों को पनपाये जाने की संस्कृति ख्रत्म करने के आह्वान की भी कलई खोल रहा है। कहना होगा कि तीन दशक पूर्व देश में आयी नयी आर्थिक नीति की शुरूआत से ही निरंतर यह विमर्श चला कि भारतीय अर्थव्यवस्था में सब्सिडी की परिपार्टी खत्म की जाए क्योंकि सब्सिडी अर्थव्यवस्था में भ्रष्टाचार, संसाधनों की बंदरबांट और अनुत्पादकता को प्रोत्साहित करती हैं। बल्कि इस क्रम में इस बात पर भी आम राय बनी कि सब्सिडी के बदले लक्षित वर्ग को सीधे फायदा पहुंचाया जाए या उनके आय, उत्पादकता तथा कल्याण को प्रोत्साहित करने वाले बुनियादी संरचना के निर्माण पर बल दिया जाए। इस नीति के तहत भारत मेंं सब्सिडी के तीन प्रमुख एफ यानी फूड, फु यल और फर्टिलाइजर पर दी जाने वाली भारी भरकम सब्सिडी को या तो फेज आउट किया गया या इन्हे प्रदान करने की एक नयी प्रणाली विकसित करने की पहल शुरू की गई। इस क्रम में फुयल सब्सिडी के अंतर्गत सबसे पहले बाजपेयी नीत एनडीए काल में पेट्रोल पर सब्सिडी हटा कर इसे बाजार मूल्य आधारित कर दिया गया। इसके बाद यूपीए १ और २ के कार्यकाल में डीजल की कीमतों में प्रति माह थोड़ी थोड़ी कीमत बढा बढ़ा कर इस पर से भी सब्सिडी हटा ली गई। अब नरेन्द्र मोदी नीत एनडीए-2 काल में एलपीजी को लगभग सब्सिडी से मुक्त कर बाजार आधारित कर दिया गया। इसी तरह फर्टिलाइजर की सब्सिडी भी किसानों को सीधे देने और उर्वरक मिल मालिकों को मिलने वाली सब्सिडी पर निगरानी को कड़ा कर दिया गया है। लेकिन इस दौरान फूड सब्सिडी की बात करे तो इस रिजीम के सेहत पर कोई असर नहीं पड़ा। भारत में फूड सब्सिडी राजनीतिक रूप से इतना संवेदनशील व अपरिहार्य तत्व बनकर रहा जिससे कोई भी सरकार किसी भी तरह की नीतिगत छेडछाड करने से कतराती रही है। यह जानते हुए कि भारत में फ़ूड सब्सिडी आधारित सार्वजनिक वितरण प्रणाली के तहत आजाद भारत के कई राज्यों में दर्जन भर महाघोटाले हो चुके हैं। कहना होगा भारत में फूड सब्सिडी जो पीडीएस यानी जनवितरण प्रणाली, एमएसपी यानी न्यूनतम समर्थन मूल्य और भारतीय खाद्य निगम द्वारा आबंटित राज्यों को अनाज कोटे के त्रिकोण पर आधारित है, यह इंदिरा गांधी के पहले कार्यकाल से ही सस्ती रोटी नामक कार्यक्रम से शुरू हुआ और जनता पार्र्टी के थोड़े से कार्यकाल को छोड़कर यह प्रावधान हर राजनीतिक रिजीम में निरंतर चलायमान र है । इस योजना की मुुखय संचालक भारतीय खाद्य निगम पर हमेशा एक सफेद हाथी उपक्रम का टैग लगाया जाता रहा है। इतना ही नहीं भा रत में किसानों को बाजार का पर्याप्त फायदा नहीं मिल पाने की वजह फूड सब्सिडी आधारित इस सार्वजनिक वितरण प्रणाली व्यवस्था की वजह से बाजार में खाद्याान्नों का बाजार आफ सीजन में भी डिमांड मार्केट ना होकर फसल सीजन की तरह हमेशा सप्लाई मार्केट बना रहता है।
गौरतलब है कि भारत के राजनीतिक दलों के लिए फूड सब्सिडी और खाद्याान्न उपभोक्ताओं का हित इतना ज्यादा महत्वपूर्ण रहा है कि जिसकी एवज में वे किसानों के फसलों के मूल्य बढाने से भी कतराते है, अगर इसे बढाते भी हैं तो फिर एमएसपी को वैधानिक बनाने से कतराते हैं।
गौरतलब है मगर यूपीए 2 के कार्यकाल में जब यह तय किया गया कि खाद्य सुरक्षा को कानूनी दर्जा देकर पोलीटिकल मास्टर स्ट्रोक खेला जाए तब उस दौरान बीजेपी ने इस कदम का अर्थव्यवस्था का हवाला देकर विरोध किया था। इस क्रम में नरेन्द्र मोदी की सरकार में फूड सब्सिडी को सीघे खाद्यान्न भत्ते के रूप में नकद देने या फिर इसके बदले अनाज देने का जब राज्यों को विकल्प दिया गया तो राज्यों ने अनाज लेने को ज्यादा तवजजो दी। पर जब कोरोना काल आया तो विपदा काल का हवाला देकर मोदी सरकार ने प्रति व्यक्ति पांच किलो अनाज मुफत देने की घोषणा की गई। आपदा काल की दृष्टि से उठाया गया यह कदम बेहद उपयुक्त था। सस्ते या मुफत अनाज देने की यह पुरानी राजनीतिक परंपरा मौजूदा मोदी सरकार के लिए राजनीतिक रूप से भी बेहद लाभदायक साबित हुई। ३१ दिसंबर २०२१ तक के लिए घोषित यह योजना यूपी के विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखकर जब ३१ मार्च २०२२ तक बढ़ाया गया तो इस का सीधा मकसद इसका राजनीतिक फायदा लेना था। और यही हुआ भी। यूपी चुनाव में भाजपा की जीत के उपरांत जब अखिलेश यादव ने विधानसभा में जब सत्ताधारी दल से यह कहा कि आपने जो मुफत अनाज बांटा वह कोई अपने घर से नहीं बांटा। कुुल मिलाकर लब्बोलुआब यही निकलता है कि भारत में मुफत अनाज राजनीतिक सफलता का ,एक ऐसा अमोघ अस्त्र है जिस परंपरा को कोई भी सुधारवादी सरकार ध्वस्त नही कर पाती । इसी वजह से लगता है अगले २०२४ के लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखकर इस योजना को अर्थव्यवस्था की भारी कीमत पर मोदी सरकार द्वारा जारी रखा गया है। ऐसे में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के मुफतखारी रोकने के आह््वान की विश्वसनीयता पर सवाल उभरना बेहद लाजिमी है।
कि न किन चीजों को नागरिकों को मुफत दिया जाए, किन किन चीजों को प्रोत्साहन के बतौर बुनियादी संरचना के रूप में दिया जाए और किन किन चीजों का वाजिब लागत नागरिकों से वसूल किया जाए इसका एक व्यापक दिशा निर्देश बनाया जाना जरूरी है। इसी आलोक में राजनीतिक दलों को अपने घोषणा पत्र में अपनी बातें उल्लिखित करने की छूट होनी चाहिए। कई लोग मानते है की सुरक्षा , शिक्षा , सेहत , सफाई तथा न्याय के अलावा कुछ भी मुफ्त नहीं होना चाहिए।
ऐसा नहीं है कि भारत में खाद्य सब्सिडी का एक बेहतर विकल्प नहीं दिया जा सकता। हमे यह समझना होगा कि सस्ता व मुफत अनाज देश के कामगार आबादी को आरामतलबी व अपने जीवन स्तर को उंचा उठाने के प्रति आलसी बनाता है, अर्थव्यवस्था में अनुत्पादकता व गैर योजना व्यय तथा भारी पैमाने पर भ्रष्टाचार बढाता है, किसानों को अपने उत्पादों का लागत युक्त बेहतर बाजार मूल्य नहीं प्रदान करता है। खाद्य सुरक्षा की बेहतर नीति यही हो सकती है कि देश के छह लाख गांवों तथा पांच हजार शहरों में सरकार व चैरिटी संगठनों के साझे में तैैयार भूखों को भोजन देने का लंगर कार्यक्रम चलाया जाए। इससे जरूरतमंदो को खाना मिलेगा व भ्रष्टाचार भी रुकेगा। और जनवितरण प्रणाली को केवल आदिवासी इलाकों, बाजार के पहुंच से दूर इलाकों तथा हर तरह के आपदा काल के लिए सीमित रखा जाए। भारतीय खाद्यान्न निगम को सीजन में अनाज खरीदने व आफ सीजन में निर्धारित दरों पर बेचने वाली एजेंसी बना दिया जाये तो क्रय बिक्रय की अपनी छोटी मार्जिन से भी व ह अपने पैरों पर खडा हो जायेगा और तब बेहतर सप्लाई प्रबंधन से महंगाई पर भी नियंत्रण रहेगा। हमे यह तय करना होगा कि हर फूड आइटम की हम उत्पादन लागत अदा करें और कमजोर वर्ग को या तो तैयार भोजन मिले या उनकी आमदनी व वजीफा इतना पर्याप्त हो वह इसे बाजार से खरीदे।
इस कदम से देश की लोकतांत्रिक राजनीति को मुफतखोरी की संसकृति से, अर्थव्यवस्था को घाटे के बजट, अनुत्पादक व्यय तथा भ्रष्टाचार से तथा किसानों को अपने उत्पाद की मिलने वाली अपर्याप्त कीमत से और सरकारों को भारी व्यय से मुक्ति मिलेगी। फिर सरकार इन बचतों को बेहतर सामाजिक सुरक्षा और कल्याण पर व्यय कर सकेगी