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Wednesday, July 13, 2022

भारत में आर्थिक सुधारों के चौथे दशक की शुरुआत पर राजनीतिक प्रशासनिक सुधार से अभी भी परहेज

 भारत में आर्थिक सुधारों के चौथे दशक की शुरुआत

पर राजनीतिक प्रशासनिक सुधार से अभी भी परहेज
        मनोहर मनोज
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अभी अरुण जेटली स्मृति व्याख्यान के दौरान एक दिलचस्प बयान दिया की वह अपने शासन काल में चल रहे आर्थिक सुधारों को ना तो किसी के दबाव में और ना ही किसी लोकलुभावन उद्देश्य से बल्कि लोगों को राहत देने के उद्देश्य से संचालित कर रहे हैं। चूंकि भारत में चल रहा आर्थिक सुधारो का दौर अब तीन दशक पूरा कर चौथे दशक में प्रवेश कर रहा है, ऐसे में न केवल नरेंद्र मोदी बल्कि विगत से अभी तक की सरकारों की आर्थिक मोर्चे पर किये गए कार्यों की सम्यक समीक्षा करने का यह मुनासिब वक्त है।
कहना होगा की ठीक 31 साल पहले इसी जुलाई माह में भारत में शुरू की गई आर्थिक सुधारों की श्रृंखला आजाद भारत के इस 75 साल के कालखंड की एक बहुत बड़ी राष्ट्रीय घटना थी। हैरतपूर्ण बात ये थी तत्कालीन नरसिंह राव की सरकार ने आर्थिक सुधारों की यह पहल किसी राजनीतिक औचित्य के मार्फत नहीं उठाया था बल्कि देश की तत्कालीन संगीन आर्थिक परिस्थितियों के मद्देनजर उठाया थी। पर यह एक ऐसी पहल थी जिसने भारत की आर्थिक नीतियों की समूची संरचना को बदलने के साथ अर्थव्यवस्था को बिलकुल एक नए परिवेश प्रदान किया था। मजेदार बात ये थी की भारतीय अर्थव्यवस्था पर कांग्रेस द्वारा की गई इस  नीतिगत पहल पर इसके मुखय प्रतिद्वंदी दल एनडीए की सरकार ने कुछ ज्यादा ही दौड़ लगाई। पर नरसिंह राव  और वाजपेयी दोनों की सरकार के लिए नयी आर्थिक नीतियों का कदम उनके दल के  किसी  राजनीतिक  एजेंडे और उनके चुनाव जिताऊ प्लाटर के रूप में डिजाइन नहीं किया गया था।  इस वजह से अर्थव्यवस्था में बेहतर रिजल्ट देने के बावजूद न तो नरसिंह राव 1996 का चुनाव जीत पाए और ठीक इसी तरह अर्थव्यवस्था का ज्यादा बेहतर रिजल्ट देने के बावजूद बाजपेयी भी 2004 का चुनाव नहीं जीत पाए। इसके बाद नयी आर्थिक नीतियों की प्रवर्तक कांग्रेस पार्टी जब केंद्र में यूपीए के तौर पर पदारूढ हुई तो वह अपनी आर्थिक नीति के मूल उद्देश्यों से विपरीत जाकर आर्थिक सुधारो का कथित मानवीय चेहरा लेकर आई। वह चेहरा जो भारतीय मतदाताओं के मनभावन और लोकलुभावन योजनाओं, अनुत्पादक तथा सब्सिडी जनित कार्यक्रमों  तथा किसान कर्जमाफी जैसे कदमों से सुसज्जित था। इसकी वजह से यूपीए अपना अगला 2009 का चुनाव जीत गई। लेकिन  यूपीए  द्वारा अर्थव्यवस्था के मूलभूत उद्देश्यों से किये गए खिलवाड़ की उसे सजा भी मिली क्योंकि उपरोक्त कदमों से अर्थव्यवस्था का वित्तीय घाटा बढ़ा जिससे एक तरफ अर्थव्यवस्था मुद्रास्फीति का घोर शिकार हुई तो दूसरी तरफ भ्रष्टाचार और घोटालो के पर्दाफाश का सिलसिला लगातार चलने से वह आगामी 2014 का चुनाव  हार गर्ई। इसके उपरांत जब नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में जब एनडीए- 2 का शासन में आगमन हुआ तो इसने अपने काम की शुरूआत नयी आर्थिक नीति के मूलभूत उद्देश्यों को ध्यान में रखकर किया और क्षत विक्षत अर्थव्यवस्था को जल्द पटरी पर लाने में कामयाब हो गई। अर्थव्यवस्था को तीन साल तक सही दिशा में ले जाने के बाद भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कुछ नया करने की होड़ में सरकार  नोटबंदी का ऐसा कदम लेकर आई जिससे अर्थव्यवस्था को आगामी दौर में काफी नुकसान पहुँचा। रही सही कसर बिना पूरी तैयारी के लायी गयी जीएसटी से पूरी हो गई। इस दौरान नरेंद्र मोदी सरकार द्वारा सामाजिक आर्थिक सशक्तिकरण की कई योजनाओं मसलन उज्जवला, सौभाग्या , जनधन , जनसुरक्षा , स्वच्छता और बढे बजट की आवास योजना को लाने के वावजूद अर्थव्यस्था की विकास दर को पांच फीसदी से ऊपर ले जाने में वह निरंतर विफल रही । पर नरेंद्र मोदी की यह सरकार निमन विकास दर के बावजूद 2019 के चुनाव में अपने राजनीतिक प्लाटर में मतदाताओं को कई लुभावनी चीजे परोस कर ले आई , मसलन किसानो को प्रति माह 500 रुपये की सम्मान राशि , मध्य वर्ग के लिए आय कर की सीमा पांच लाख रुपये , मजदूरों के लिए बेहतर सामाजिक सुरक्षा की स्कीम। पर चुनाव जीतने में मास्टर स्ट्रोक बना पाकिस्तान के बालाकोट में आतंकी कैंपों पर किया गया हवाई हमला। यह कदम वैसे ही कारगर हुआ जैसे बाजपेयी को 1999 में कारगिल युद्ध में मिली विजय चुुनाव की जीत में तब्दील हो गई।
कुल मिलाकर इस दौरान नयी आर्थिक नीतियों ने भारत की अर्थव्यवस्था को एक ऐसा नया डॉक्टराईन प्रदान किया जिसमे साम्यवादी और समाजवादी जुमले पर आधारित कॉर्पोरेट विरोधी और गरीब हितैषी कदमों का साहित्य नदारद था। इसमें निजी और विदेशी सभी निवेश को आकर्षित कर,बाजार शक्तियों का पूरा अवशोषण कर तथा सरकारी क्षेत्र को निजी क्षेत्र से प्रतियोगिता और साझेदारी दिलाकर देश की विकास दर को बढाना सबसे बड़ी प्राथमिकता बना। इसका फायदा ये हुआ की विकास दर की बढोत्तरी से सरकारों का कर राजस्व बढा और फिर इस राजस्व से देश की गरीबी निवारण और ग्रामीण विकास योजनाओं के आबंटन में जबरदस्त बढोतरी हुई।
लेकिन इस दौरान का सच ये भी था कि जिस सरकार ने नयी आर्थिक नीतियों पर शुद्ध आर्थिक तौर पर तवज्जो दी उससे अर्थव्यवस्था को तो फायदा मिला पर राजनीतिक लोकलुभावन एजेंडे से आसक्ति रखने वाला भारतीय मतदाताओं को वह रिझाने में कामयाब नहीं हो पाई। इस मामले की तह में जाए तो ऐसा होने की असल वजह ये थी कि देश में खालिस आर्थिक सुधारों को लाया गया पर पॉलिटिकल शार्टकर्टिज्म की वजह से इस सुधार से ताल्लुक रखने वाले राजनीतिक और प्रशासनिक सुधारों से सभी सरकारों द्वारा परहेज किया गया।  
मौजूदा मोदी सरकार की बात करें तो उस पर यूपीए की तुलना में नए आर्थिक सुधारों के प्रति दर्शायी जाने वाली संजीदगी पर सवालिया निशान भले न उठे , परंतु राजनीतिक अजेंडे को बहुत ज्यादा तवज्जो देने का आरोप जरूर चस्पा होता है। प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी भले यह कहते हों की वह केवल चुनाव के छह महीने पहले राजनीति करना पसंद करेंगे बाकी समय वह केवल सुशासन को तवज्जो देंगे। पर हकीकत ये है कि मोदी सरकार का एक एक कदम पोलीटिकल करेक्टनेस को ध्यान में रखकर किया जाता है। जाहिर है इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए राजनीति को तमाम आदर्शवादी और सुधारवादी कदमो से दरकिनार कर पहचान की राजनीति से लैस रखा जाता है। विगत की सरकारों ने भी आर्थिक कदमों के साथ साथ राजनीतिक व प्रशासनिक सुधारों को ज्यादा तवज्जो नहीं दी लेकिन बल्कि मोदी सरकार पहले के मुकाबले ज्यादा पालीटिकल है। वैसे भी भारत में पहले और अब भी राजनीतिक और प्रशासनिक सुधारो को न्यायालय, मीडिया और सिविल सोसाइटी की क्रियाशीलता के भरोसे छोड़ा गया है। क्योंकि राजनीतिज्ञों के लिए ये चीजें उनके विस्तार में बाधक दिखाई देती हैं। इस वजह से एक तरफ संवैधानिक संस्थाओं को कमजोर किया जाता है तो दूसरी तरफ  निष्पक्ष मीडिया और जागरूक सिविल  सोसाइटी  को तमाम तरह से  हतोत्साहित किया जाता है। प्रशासनिक सक्रियता प्रदर्शित करने में मोदी सरकार ने अपनी विगत की सभी सरकारों को पीछे छोड़ दिया है। पर अफसोस ये है ये प्रशासनिक सक्रियता और जांच एजेंसियों की सारी चाक चौबंदी केवल और केवल मौजूदा सरकार के राजनीतिक विरोधियों में मौजूद अपराधियों और भ्रष्टाचारियों प्रति प्रदर्शित हो रही है।
कहना होगा किसी देश की चलायमान अर्थव्यवस्था में उस देश की राजनीतिक -प्रशासनिक उत्कृष्टता, तत्परता और गतिशील तथा गुणवत्ता युक्त संस्थाओ का बड़ा योगदान है। ऐसे में भारत में लोकतंत्र , सरकार और बाजार की जुगलबंदी कई सारे गैर आर्थिक प्रशासनिक व राजनीतिक सुधारों की ओर इशारा करती है जिनमे चुनाव व राजनीतिक दलों में सुधार, पुलिस सुधार, न्यायिक सुधार और योग्यतम लोगों की नियुक्ति संबंधी कई सुधार शामिल हैं जो अंततः: हमारी पालीटिकल इकोनामी को बेहतर तरीके से पोषित करेंगी।  

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